मध्यप्रदेश के सीहोर जिले में स्थित सलकनपुर नामक गांव जो भोपाल से 75 कि मी दूर है । यहां 1000 फीट ऊंची पहाड़ी पर माता बिजासन देवी का भव्य प्राचीन मंदिर स्थित है, यह पहाड़ी मां नर्मदा से 15 किलोमीटर दूर स्थित है। बिजासन देवी मां दुर्गा देवी का अवतार हैं। यह सलकनपुर (SALKANPUR TEMPLE) मंदिर के नाम से ये विख्यात है. वैसे तो सालभर यहां श्रद्धालु आते हैं लेकिन नवरात्रि (NAVRATRI) पर मंदिर की छटा निराली होती है. ये आस्था और श्रद्धा का शक्ति पीठ है.
- 1000 फीट ऊंचे पर्वत पर स्थित है यह देवी का मंदिर
- 400 साल पुराना मंदिर
- 52 वां शक्तिपीठ माना जाता है
- मंदिर में स्थापित देवी की मूर्ति सैकड़ों वर्ष पुरानी है
- महिषासुरमर्दिनी के रूप में माँ दुर्गा ने रक्तबीज नाम के राक्षस का वध इसी स्थान पर करके यहां विजयी मुद्रा में तपस्या की
- गर्भगृह में लगभग 400 साल से 2 अखंड ज्योति प्रज्जवलित हैं
- पौराणिक महत्व
- विजयासन देवी की मन्नत का धागा बांदा जाता है.
विजयासन देवी माता का मंदिर लगभग एक हजार फीट की उंचाई पर है. विजयासन देवी की यह प्रतिमा लगभग 4 सौ साल पुरानी और स्वयंभू मानी जाती है. पौराणिक मान्यता है कि दुर्गा के महिषासुरमर्दिनी अवतार के रूप में देवी ने इसी स्थान पर रक्तबीज नाम के राक्षस का वध कर विजय प्राप्त की थी. फिर जगत कल्याण के लिए इसी स्थान पर बैठकर उन्होंने विजयी मुद्रा में तपस्या की थी. इसलिए इन्हें विजयासन देवी कहा गया है ।
सलकनपुर मंदिर आस्था और श्रद्धा का 52 वां शक्ति पीठ माना जाता है. मंदिर पहुंचने के लिए भक्तों को पत्थर से बनी 1 हजार 500 सीढ़ियों चढ़ना होती हैं. हालांकि अब सलकनपुर देवी मंदिर ट्रस्ट ने पहाड़ी यहां सड़क एवं रोप वे भी बनवा दीया है.
मंदिर का इतिहास
मंदिर के गर्भगृह में लगभग 400 साल से 2 अखंड ज्योति प्रज्जवलित हैं. एक नारियल के तेल और दूसरी घी से जलायी जाती है. इन साक्षात जोत को साक्षात देवी रूप में पूजा जाता है. मंदिर में धूनी भी जल रही है. इस धूनी को स्वामी भद्रानंद और उनके शिष्यों ने प्रज्जवलित किया था. तभी से इस अखंड धूनी की भस्म अर्थात राख को ही महाप्रसाद के रूप में दिया जाता है.
चारों ओर मनोहारी पर्वत श्रृंखलाएं हैं जिनमें एक पर्वत पर मां विंध्यवासिनी विजयासेन देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है। शारदीय और चैत्रीय नवरात्रि में मां की चौखट पर माथा टेकने दूरदराज से लाखों लोग आते हैं
ऐतिहासिक रूप से पौराणिक कथाओं के आधार पर श्री नर्मदा परिक्रमा और नर्मदा तीर्थों का सेवन महाभारत काल से पूर्व से इस विजयासन शक्तिपीठ की प्रसिद्धि रही है। इस संदर्भ में स्कंद पुराण के अवंति खंड के रेवा खंड में वर्णित नेमावर तीर्थ को नाभि क्षेत्र कहा गया है और उसके बाद जिस सिद्धेश्वर वैष्णवी देवी तीर्थ का उल्लेख है, वह विंध्य पर्वत पर विराजमान मां विजयासन देवी का स्थान है।
कूर्म पुराण में तीर्थक्रम की व्याख्या में नर्मदा के उत्तर तट पर विंध्य पर्वत श्रेणी पर यशोदाजी की पुत्री का विराजित होना तथा सिद्धेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध होने का प्रमाण है। शिव पुराण में पार्वती के जन्म के पूर्व देवताओं ने जो प्रार्थना की, उसमें विंध्यवासिनी, विजया, सिद्धेश्वरी नाम से देवी का गुणगान किया है।
विजयासन देवी की प्रतिमा के दाएं-बाएं जो 3 संगमरमर की मूर्तियां हैं, उनके विषय में मान्यता है कि गिन्नौर किले के वीरान होने पर एक घुम्मकड़ साधु इन्हें यहां पर ले आया था। स्वतंत्र भारत की मध्यप्रदेश विधानसभा ने 1956 में इस मंदिर व्यवस्था का पृथक से अधिनियम बनाया, जो 1966 में लागू हुआ तथा मंदिर की व्यवस्था प्रजातांत्रिक तरीके से गठित समिति के हाथों में आई।
सलकनपुर देवीधाम पहुंचने के लिए रेलमार्ग द्वारा होशंगाबाद रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड सहित सीहोर जिले के बुदनी स्टेशन उतरकर वहां से बस द्वारा जाया जा सकता है। इसके अलावा माता के दर्शनों के लिए भोपाल से 70 किलोमीटर सड़क मार्ग से आया जा सकता है, वहीं औबेदुल्लागंज से 35 किलोमीटर सड़क मार्ग से भी मंदिर पहुंच सुविधा प्राप्त की जा सकती है।
भक्तों का कहना है कि जब तक मां के दरबार से बुलावा नहीं आता, कोई भी उनके दर्शन नहीं पा सकता है। इसलिए जो दर्शन को बार-बार आते हैं, वे स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं। चैत्रीय और शारदीय नवरात्रि में पूरे 9 दिनों तक भक्तों की भीड़ होती है और प्रतिदिन 1 से लेकर 5 लाख तक भक्तगण मां के दर्शनों की कतार में होकर दर्शन पाते हैं।
भक्तों का कहना है कि मां विजयासन उनकी मनोकामनाएं पूरी करती हैं तभी हजारों की संख्या में प्रतिदिन पैदल ही मां का ध्वज हाथों में उठाए 'जय बोलो शेरावाली का', 'सांचे दरबार की जय हो' के उद्घोष के साथ भरी दोपहरी हो या ठंड हो, ये भक्त नंगे पांव, पांव में छाले पड़ने के बाद भी परिवार सहित नन्हे-नन्हे बच्चों एवं बुजुर्गों को साथ लिए एक कारवें के रूप में मंदिर की ओर कदम बढ़ाए जाते हैं जिनका कारवां 200 किलोमीटर दूर तक सड़कों के दोनों ओर थमता नजर नहीं आता है।
पूजन विधि, दर्शन का समय
देवीधाम में देवीजी की पूजा प्रतिदिन षोडश मंत्रोच्चार के माध्यम से सात्विक विधि से की जाती है। प्रतिदिन नियमित रूप से मां की 3 आरतियां होती हैं, जो सुबह 5.30, दोपहर 12.00 तथा सायं 7.30 बजे शुरू की जाती हैं। नवरात्रि पर्व के समय विशेष पूजन आरती होती है तथा महाष्टमी को रात्रि में निशा पूजन, हवन एवं रात्रि जागरण होता है और मंदिर के पट पूरी रात खुले होते हैं।
भक्तगण सुबह 5.30 से रात्रि 8 बजे तक मां विजयासन देवी के दर्शन लाभ पा सकते हैं। मंदिर के पास 10-15 किलोमीटर की दूरी पर प्राचीन गिन्नौर किला, आंवली घाट, देलावाड़ी, सारू-मारू की गुफाएं एवं भीमबैठिका आदि देख सकते हैं।
तुलादान – मंदिर में जो भक्त अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए तुलादान कराना चाहते हैं, उनके लिए तुलादान कराने वाले भक्त के बराबर गुड़, अनाज, फल, सोना, चांदी, सिक्के या अन्य वस्तुएं श्रद्धा और मान्यता के अनुसार तुलादान कराकर मंदिर को दान की जाती हैं। अनेक भक्त तुलादान सामग्री स्वयं अपने घरों से व्यवस्था करके लाते हैं जबकि जो नहीं लाते, वे मंदिर ट्रस्ट को उसका मूल्य चुकाकर उक्त सामग्री प्राप्त कर तुलादान कराकर दान करके अपनी मनोकामना पूर्ति का लक्ष्य पूरा करते हैं।
माताजी की कृपा और मनोबल के सहारे हजारों की संख्या में भक्त जयकारों के उद्घोष के साथ दर्शन को जाते हैं तो यह जोश देखने योग्य होता है। वहीं जब वे दर्शन के बाद नीचे आते हैं तो उन्हें 1500 सीढ़िया उतरने का पता भी नहीं चलता है।
रोपवे ट्रॉली व निजी फोर व्हीलर साधन- नीचे धर्मशाला के पास से भक्तगण रोपवे ट्रॉली से भी मंदिर पहुंचते हैं जिसके लिए उन्हें 50 रुपए प्रति व्यक्ति आने-जाने का टिकट लेना होता है, वहीं निजी फोर व्हीलर वाहन के माध्यम से भी भक्त न्यूनतम 10 रुपए वाहन की रसीद लेकर मंदिर तक पहुंचते हैं। मंदिर प्रांगण में 4-5 सौ वाहनों के एक समय में पार्किंग की व्यवस्था की गई है।
विजयासन देवी की मन्नत का धागा- मंदिर में आने वाले हजारों की संख्या में भक्त मंदिर में विजयासन मां के दर्शन करने के बाद मंदिर प्रांगण में प्रवेश गेट के पास ही बैठे पुजारी के पास पहुंचकर निर्धारित दक्षिणा दान कर मन्नत का धागा लेते हैं। मन्नत का धागा लेने के बाद भक्त मां के समक्ष अपनी इच्छाओं को पवित्र धागे में अभिमंत्रित कर अपनी बांहों, गले में बांधते हैं। धागा बांधते समय वे अपनी इच्छा व्यक्त कर मनोकामनाएं जल्दी पूरी करने की प्रार्थना के साथ यह पवित्र धागा बांधते हैं और मान्यता है कि इससे भक्तों की इच्छाएं पूरी होती हैं और वे वापस आकर इस धागे को छोड़ जाते हैं।
विभिन्न प्राचीन स्थल
खोखरी माता- मंदिर के बाहर खोखरी माता की प्राचीनतम प्रतिमा है जिनके दिव्य दर्शन करके भक्त अपने बच्चों की कठिन से कठिन खांसी इत्यादि के रोग से मुक्ति पाते हैं। मान्यता है कि खोखरी माता के सामने उनके माता-पिता अपने बच्चे का शीश झुकाकर प्रार्थना करते हैं जिससे खोखरी माता प्रसन्न हो जाती हैं और और बच्चा शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है तब परिजन प्रसन्न होकर मां को प्रसाद आदि चढ़ाकर खुशी-खुशी घर लौटते हैं।
भक्त मां के गर्भगृह के समक्ष लंबी कतार लगाने के बाद पहुंचते हैं, जहां मां के दर्शन प्राप्त होते ही आनंद और शांति महसूस करते हैं। गर्भगृह को देखकर तथा मंदिर की निर्माण शैली को देखकर सलकनपुर देवीधाम की प्राचीनता का अनुमान होता है, जो अब नवीनतम रूप में बाहरी विशालकाय स्वरूप में निर्मित किया गया है। मंदिर में प्रतिष्ठित मां विजयासन की प्रतिमा के साथ ही गणेशजी की भी प्रतिमा विराजमान है।
श्री गणेश की प्रतिमा देखकर यह निश्चित कहा जा सकता है कि उक्त दोनों प्रतिमाएं पार्वती और गणेश की हैं जिन्हें विजयासन पीठ के नाम से पुकारा जाता है। गर्भगृह के दोनों ओर द्वारपाल की स्थापना है। द्वार के ठीक ऊपर मां के सेवक लांगुरवीर अर्थात हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है।
गर्भगृह में मुख्य मूर्ति मां विजयासन अर्थात मां पार्वतीजी की है जिन्हें गणेश के साथ पूजा जाता है। मां विजयासन की प्रतिमा के साथ-साथ गर्भगृह में कुछ अन्य मूर्तियां विराजमान हैं। वे महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली और महागौरी की प्रतिमाएं हैं जिन्हें एक प्रकार से वैष्णो रूप में माना जाता है।
गर्भगृह में लगभग 400 वर्षों से अधिक समय से 2 अखंड ज्योतियां आज भी प्रज्वलित हैं- एक नारियल के तेल तथा दूसरी घी की। ये साक्षात जोतें देवी रूप में हैं। इन ज्योतियों को लेकर यह भावना है कि ये सूर्य और चन्द्रमा की तरह अटल हैं जबकि भक्त इन अखंड ज्योतियों को मां का स्वरूप मानकर पूजा करते हैं। मंदिर के भीतर गर्भगृह के ठीक सामने भैरव बाबा की मूर्ति की स्थापना है, जहां भक्त माता के दर्शनों को पूर्ण और सार्थक मानते हैं।
मंदिर में ही भैरव बाबा की मूर्ति के किनारे एक धूनी है, जो 500 सालों से अखंड जल रही है। इस जलती धूनी को स्वामी भद्रानंद और उनके शिष्यों ने प्रज्वलित किया था तथा तभी से इस अखंड धूनी की भस्म अर्थात राख को ही महाप्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।
मंदिर समिति द्वारा महाप्रसाद के पैकेट के रूप में भक्तों को इसे न्योछावर कर दिया जाता है। मान्यता है कि इस महाप्रसाद की भस्म में समस्त रोग-दोष, विपत्तियां-कष्ट तथा पारिवारिक समस्याओं को मिटाने की अद्भुत महाशक्ति है जिसे भक्त पूर्ण श्रद्धा से प्राप्त कर अपने निवास के पूजाघर में सदा रखते हैं।
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